Tuesday, July 30, 2013

मेरे आखिरी परनाम.....


सुनो....मुझे मत याद आओ तुम...
मुझे अब भूल जाओ तुम...
तुम्हारी हर कविता के मैं अब भी संग चलती हूँ
तुम्हारी हर ग़ज़ल हर गीत सुन अब भी मचलती हूँ
मेरी छोटी सी बिटिया है वो अक्सर पूछा करती है
तुम्हारे गीत सुनकर या कि पढ़कर क्यूँ मैं रोती हूँ
उसे कैसे बताऊँ गीत ये बस गीत थोड़े हैं
ये मेरी धडकनों के वास्ते इलज़ाम रखे हैं
बहुत पहले कभी छू कर के आगे आ गयी थी जो
उसी चौखट पे मेरे आखिरी परनाम रखे हैं
तुम्हारे गीत ग़ज़लों में जो अक्सर आते जाते थे
सुनो...वो ही मेरी दो बच्चियों के नाम रखे हैं
मुझे जीना है अब अपनी नयी राहें बनाओ तुम
मुझे मत याद आओ तुम...
मुझे अब भूल जाओ तुम...
सुनो....


                        ----मौलश्री कुलकर्णी                                                                                                                                          

स्वाद

               
इन मीठे, खट्टे, तीखे अनगिनत स्वादों के बीच मिला है मुझे कुछ.....
फीका सा....
और यकीन मानो मुझे जंच भी गया है
ये फीकापन......
कुछ नया तो है इसमे.....
जो सच्चा है...सादा है....
चटख रंगों का....इतराते मसालों का...
चहकती ख़ुशबुओं का दिखावा नहीं हैं इसमे....
पानी जैसा स्वादहीन भी नहीं...
कि जिसमे घुल जाए उस जैसा हो जाए....
इसकी अपनी एक पहचान है जो मुझे भाती है…..
एक स्वाद है इसका अपना.....
फीका....
किसी ने कभी पूछा था मुझसे...
इसमे ऐसा क्या खास है????
बिन सोचे ही कहा था मैंने,
“इसका मुझ जैसा ना होना......”

                            ---मौलश्री कुलकर्णी
  

थोड़ा कहूँ बहुत समझना....


थोड़ा कहूँ बहुत समझना....
मेरी हर बात पे हँस लेना,
मेरी लिखावट पे चिढ़ जाना,
मगर कसम हैं तुमको....
मेरी चिट्ठी पढ़ने के बाद
उसके चारों कोनो को मिलाकर,      
अच्छे से तह लगाना
और अपने टेढ़े मेढ़े हो चुके
चार साल पुराने पर्स मे
जिसपे मैंने लाल रंग के स्केच पेन से
दो फूल बनाए थे, संभाल कर रख लेना,
मुझे एक बार याद कर लेना,
थोड़ा कहूँ बहुत समझना....

तुम झल्लाओगे,
मेरे अनपढ़ किस्सों पर,
मेरी शब्दों की नासमझी पर,
मेरी भाषा की ढीली पकड़ पर
मेरी बेवकूफी पर, मेरे गंवार होने पर,
झल्ला लेना...

लेकिन कसम है तुमको....
हर सुबह उठकर मेरी चिट्ठी को,
अपने टेढ़े मेढ़े, चार साल पुराने,
दो लाल फूलों वाले पर्स से निकाल कर
बस देख लेना,
चाहे उसकी तहों को खोल कर,
चारों कोनो को अलग कर,
मत पढ़ना.....बस देख लेना....
मुझे याद कर लेना....

थोड़ा कहूँ बहुत समझना....

                                                                             ---मौलश्री कुलकर्णी


Monday, July 29, 2013

अन्तःवानी

 अब खोलो उन सब पन्नों को और देखो क्या सब होता है,
जब रात को नींद नहीं आती और सुबह अँधेरा होता है,
            कुछ रिश्तों के पतवार सही 
            कुछ नातों के आधार सही,
            कुछ भूली बिसरी बातों में,
            ज़िक्र तेरा कई बार सही,
पर तुझसे मैं ये क्यूँ कह दूं के हाल मेरा क्या होता है,
जब आगे बढ़ने की शर्तों पर साथ किसी का खोता है,
वह अपना ही होता है अपनों सा प्यारा होता है
जो अपनी आँखों में तुमसा कोई सुख स्वप्न संजोता है,
           किसी का अभिनन्दन तुम हो,
           जिस का वंदन भी तुम हो,
           इच्छा बस एक दर्शन की,
           हृदयगति का स्पंदन भी तुम हो,
उसकी खुशियों के लिए तुम्हारा सर्वस्व न्योछावर होता है,
वह प्राणों से प्यारा होता है आँखों का तारा होता है,
जब प्रेम आकर्षण को तजकर सनेह सरीखा होता है,
ह्रदय बाँध टूट ही जाते है आत्मा से विस्फुटित होता है,
          वह गीतों के यशगान यहीं,
          मन्त्रों के हैं आह्वाहन यहीं,
          सबसे महान सत्य है काल,
          हैं सब विधियों के विधान यहीं,
जो जीवन को एक स्वप्न समझकर सब दिन केवल सोता है,
उसका जीवन हर एक दिशा से मरुस्थल सम होता है,
जो जागकर कर्म की राह पकड़ नित कर्मभूमि में रमता है,
उसके ह्रदय में शक्ति करों में जगन्नाथ बल क्षमता है..

                                                                  - मौलश्री कुलकर्णी