Wednesday, December 10, 2014

दिसम्बर

पिछले आठ दस दिनों में काफी सारा नया साहित्य पढ़ा। कवितायें, कहानियाँ, ब्लौग्स.... बस पढ़ती ही रही... जानती हूँ तुम्हें नफरत थी इस आदत से, पर क्या करूँ, मुझे तो प्यार था। जानते हो इस सारे नए लिटरेचर मे कॉमन क्या है? दिसम्बर... दिसम्बर पर जितना लिखा गया है उतना शायद ही किसी और महीने के बारे मे लिखा जा रहा हो इन दिनों...
दिसम्बर इज़ राइटर्स न्यू फागुन ऐन्ड सावन।
और दिसम्बर को इतना फूटेज मिलने का कारण लिखते लिखते समझ आया।
दिसम्बर मे भी तो वही बात है जो तुममे है। हम दिल अक्सर उन्ही से लगाते हैं जो छोड़ के जाते हैं, चाहे तुम हो, चाहे दिसम्बर।


Tuesday, December 2, 2014

बड़ी बड़ी बातें

“ये इश्क़ विश्क़ का कीड़ा बहुत कुत्ती चीज़ है लाला, एक बार लग जाए तो तबाही गारंटी है।“ ये ब्रम्ह्ज्ञान बाँटते हुए एक लंबा कश खींच कर अपने दोस्तों के बीच वो अपना भौकाल टाईट रखता था। “बाबा, अपना सही है, अकेले ही बहुत खुश है। ये रिलेशनशिप वगैरह के फर्जी चक्कर मे पड़ना ही नहीं हमको। साला, लड़की के हज़ार नखरे उठाओ, उसके घर-वर के झऊआभर चक्कर काटो, हर रोज़ की मान मनौवल, फिर अगर सेट हो गयी तो घुमाओ फिराओ, पैसा उड़ाओ और ना सेट हुई तो बैठो आँसू बहाते, साला देवदास बन के शेर-ओ-शायरी, सुट्टा, दारू मे टोटल ज़िंदगी बर्बाद। खाली चूतियापा है ई सब, और कुछ नहीं।” एक और कश खींचते हुए अपने आस पास वालों के बीच खुद को दुनिया का सबसे बड़ा फिलोसोफ़र समझने वाला वो लड़का जब रात को अपने बिस्तर पर लेटता है तो उसकी आँखों मे एक ही सपना पलता है। बनारस, इलाहाबाद, कानपुर, रायबरेली या बलिया वाली, अपने गली, मोहल्ले, चौराहे या नुक्कड़ वाली, उस एक लड़की को देख लेने का सपना, उसका नाम पूछने का सपना, उसके साथ बातें करने का सपना.....

छोटे छोटे शहरों मे ऐसी बड़ी बड़ी बातें अक्सर होती रहती हैं.... 

Friday, November 28, 2014

अगरबत्ती

अब तुम खुद बताओ कैसे जलाऊँ अगरबत्ती। घर से निकलते वक़्त मम्मी ने पचास हज़ार बार कहा था, हर रोज़ शाम को भगवान के सामने दो अगरबत्तियाँ जला दिया करना। उस वक़्त ना ध्यान दिया ना ही सोचा था कि दो अगरबत्तियाँ जलाना भी इतना मुश्किल होगा। नास्तिक थोड़े ही हूँ मैं.... बहुत विश्वास है भगवान मे मेरा लेकिन भगवान को एक कमोडिटी बना कर एक कोने मे सजा कर अपने विश्वास को ओब्जेक्टिफ़ाई मैं नही कर सकती।
शामे तो इस नए घर मे कभी बीती ही नही... ना ही बिताने की कभी कोशिश की गयी। हमेशा से शामे मेरे लिए बहुत मुश्किल रही हैं। भागती रही हूँ शामों से। कोशिश करती रही हूँ कि सामना ही ना करना पड़े शामों का इसलिए कभी डोमिनोज़, कभी शॉपिंग, कभी बेमतलब भीड़ मे घूमना, कभी बेवजह दोस्तों को पार्टी के बहाने अपने घर बुला लेना।
फिर भी जब कभी गाहे बगाहे मन बना कर, “एक अच्छी लड़की” की तरह कोशिश भी की अगरबत्ती सुलगाने की तो उस धुएँ से डिट्टो वही महक आई जो तुम्हारी अंगुलियों से आती थी सिगरेट बुझाने के बाद....

अब तुम खुद ही बताओ कैसे जलाऊँ मैं अगरबत्ती.....

दोहराव

कल शाम फिर देखा तुमको मैंने, वहीं, गुप्ता चाय स्टॉल के पास... तुम्हारा पुराना अड्डा... आजकल अक्सर दिखने लगे हो यहाँ फिर से। शायद कुछ दिनो से तुम भी लखनऊ मे हो।
तुमको देखते ही क्या लगा, क्या याद आया, पता नहीं। बस ऐसा लगा जैसे अपना होकर पराया हो चुका ये शहर 5-10 मिनटों के लिए फिर से अपना हो गया। तुम्हारे दिखते ही पिछले दो दिनो से उस वेज कबाब रोल वाले के ठेले की आड़ मे छुप रही हूँ। कितनी सारी बातें दिमाग मे एक के बाद एक स्लाइड की तरह भाग रहीं हैं, फास्ट फॉरवर्ड मे। नही चाहती कि तुम देखो मुझे। क्या कहूँगी सामने पड़ने पर, और तुम भी कितने अनकम्फ़र्टेबल हो जाओगे चाय पीते पीते। फ़र्ज़ी के हाय, हैलो, कैसे हो, कैसी हो, से बेहतर है कि जो जैसा चल रहा है वैसा ही चले। और सच बताऊँ तो फिलहाल मैं इस हाल मे नहीं हूँ कि वही सब इमोशन्स दोहरा सकूँ। थक चुकी हूँ फिलहाल इस फालतू के स्यापे से। आस पास कोई अगर प्यार व्यार की बातें भी करता है ना तो मुंह से चार कर्री वाली गलियाँ ही निकलती हैं। इमोशनली बिलकुल शून्य हो गयी हूँ।

बस इतना ही है कि चौराहे पे जो भीख मांगने वाले बच्चे हमारी जोड़ी सलामत रहने की दुआ देते थे , वो बच्चे  आजतक बिना एक भी नागा किये मुझे अकेले होने पर भी जोड़ी सलामती की दुआ दे दिया करते हैं।

Monday, November 17, 2014

तुम्हारी यादें

                                 
मन के भगोने के तलुए से चिपकी बैठी....
तुम्हारी यादें....
बहुत खुरच खुरच के निकाला,
पर मुई जली तुम्हारी यादें...
छूटी ही नहीं....
चिपकी रहीं….
भर कर पानी भगोने मे
रख दिया था कुछ साल पहले...
अब लगता है यही समय है
जली खुरचन छुड़ाने का....
अब तो ढीली पड चुकी हैं...
तुम्हारी यादें....


Monday, August 25, 2014

जून महीना


किसी जून महीने मे,
कई बरस पहले,
खूब जम के बरसा था मानसून जिस साल,
घर के बाहर जमा हो गया था कित्ता सारा पानी,
बिलकुल गंगा जी जैसा,
घुटनों तक, घुटनों से भी ऊपर,
सबको कित्ता चाव चढ़ा था ना
कागज़ की नावों की रेस लगाने का,
मुझसे लाख गुना बेहतर थी नाव तुम्हारी,
इसलिए मन ही मन दे डाली थीं मैंने,
हज़ारों बददुआ उस मुई नाव को,
फिर शुरू हुई जब रेस हमारी सब नावों की,
मैंने तुमको घूर कर देखा था गुस्से मे,
और मुस्कुरा दिये थे छुप कर तुम हल्के से,
फिर क्या हुआ था उस रेस का उस दिन, अब याद नहीं,
बस उस दिन, उस रेस मे,
तुम जीत भी सकते थे, मैं हार भी सकती थी,
पर हार गए तुम भी और हार गयी मैं भी,
फिर जीत गयी थी मैं, और जीत गए तुम भी.....

Sunday, August 24, 2014

विश्वमित्रा(भाग अंतिम )

हमारी इच्छाएँ हमारे लोभ कब बन जाती हैं हमे पता ही नहीं चलता....एक क्षण पहले तक हम उस वस्तु के बिना भी बिलकुल संतुष्ट थे जिसके बिना अब अचानक मुसकुराना भी मुश्किल लगता है....
लोभ का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं....स्वयं भगवान के बाद कुछ यदि असीम और अनंत है तो वो हमारे लोभ, हमारा लालच ही है....जितना भी अधिक हमे मिलता है उससे भी अधिक हमारी इच्छाएँ पाना चाहती हैं....हमारे मन मे इच्छाओं का ऐसा ब्लैक होल होता है, जो चाहे कितना भी भर जाए कभी पूरा नही होता.....कुछ ना कुछ अधूरा छूट ही जाता है....

किसी अंजान रोड पर एक सुनसान जगह कार खड़ी कर बहुत रोयी आज विश्वमित्रा...... आज वो खुद को बिलकुल अकेला और असहाय महसूस कर रही थी....ना जाने क्यों....उसे तो खुश होना चाहिए था ना....अब वो डंके कि चोट पर अविनाश से अपने प्यार का ऐलान कर सकती थी....उसे पाने के लिए कोशिशें कर सकती थी....अपनी बहन से बदला ले सकती थी...लेकिन ना जाने क्यूँ आज उसका ऐसा कुछ भी करने का मन ही नहीं किया....

       बहुत शाम तक वो उसी जगह बैठी खुद ही खुद से बातें करती रही....हँसती रही रोती रही....
देर शाम जब वो अपने घर लौटी उसके पति परेशान से बाहर ही टहल रहे थे.....उसे देखते ही उन्होने बाहों मे भर लिया....आज पहली बार उसने भी विरोध नहीं किया.... शायद आज उसे भी उनकी ज़रूरत थी...
विशू..... तुम्हारे लिए फोन है.....
ओफ्फो.....अभी तो वो बाथरूम मे घुसी ही थी कि उसके पति ने आवाज़ लगाई.....
मैसेज ले लो, मैं बाद मे कॉल बैक कर लूँगी
अर्जेंट है....शायद श्यामली के घर से है...देखो तो....
उसके पैर वहीं ठिठक गए...न जाने क्यों इतना डर रही थी वो....
झट से टॉवल लपेट के बाहर आई, फोन जैसे ही कान मे लगाया....
हैलो...मैडम.....मैं श्यामली जी का नौकर विमल बोल रहा हूँ....उन्होने फेनाइल की पूरी बॉटल पी ली है......
“....................” कुछ भी बोल नहीं पायी वो.....
मैडम....मैडम.....मैंने ड्राईवर को बुला लिया है...अविनाश सर भी नहीं हैं यहाँ.....मैं उनको अस्पताल ले जा रहा हूँ....आप...हो सके तो आ जाइए.....जल्दी....हैलो...मैडम...मैडम....आप सुन रही हैं न.....
“....हाँ.....
आप आ रही हैं न मैडम????
“.................”
हैलो...हैलो.....मैडम....
उसके हाथ से फोन कब गिर गया उसे पता ही नहीं चला......
ऐसा कैसे कर सकती है श्यामली....इतनी कमज़ोर कैसे निकली वो.....खेल को कम से कम खेलना तो चाहिए था न.....पहले कैसे हार मान लई उसने.... वो भी इतनी आसानी से.....उसे तो हमेशा ही सबकी सहानुभूति चाहिए.... मुझे सबकी नज़रों मे बुरा बना कर खुद तो बहुत महान बन गयी वो.....
लेकिन क्या उसे अस्पताल जाना चाहिए???? क्या इस सब का कारण वो थी???? क्या श्यामली ने उसकी वजह से खुद को मारने की कोशिश की??? ये सब सोचते सोचते कल रात कब उसकी आँख लग गयी थी उसे पता ही नहीं चला था....
अभी कुछ देर पहले जब उसने अविनाश से बातें की तो उसका लहजा सुन कर वो समझ गयी कि उसे श्यामली की हालत के बारे मे कुछ भी पता नहीं था....और न जाने क्यूँ उसने बताया भी नहीं.....
फ्रेश होकर सहमते कदमो से वो अस्पताल पहुँची...ड्राईवर और नौकर ICU के बाहर ही बैठे थे.....उनकी अवस्था से साफ था कि दोनों रात भर सोये नहीं थे.....
विश्वमित्रा ने अस्पताल पहुँचते ही दोनों को चाय नाश्ते के पैसे दे कर घर भेज दिया....
एक घंटे तक वो ICU के दरवाजे पर ही बैठी रही...शांत, स्तब्ध, दिशाहीन....
न जाने क्यों खुद ही अविनाश को फोन मिलाया....
हैलो....अविनाश....मैं विश्वमित्रा....एकदम सपाट शब्दों मे बोली वो....
अभी मैं थोड़ा बिज़ी हूँ......
देखो अविनाश मुझे पता है कि तुम मुझे टाल रहे हो...लेकिन मैंने तुम्हें अपने बारे मे बात करने के लिए नही...श्यामली के बारे मे कुछ बताने के लिए फोन किया है....उसने फेनाईल कि पूरी बॉटल पी ली थी....क्योंकि मैं उससे कहा था कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ और किसी भी कीमत पर हासिल कर के रहूँगी.....लेकिन अब घबराने कि कोई ज़रूरत नहीं है...मैं आ गयी हूँ उसके पास.....उसका ध्यान रखने के लिए....एक ही सांस मे बोल फूट फूट कर रोयी वो.....
कुछ देर मे डॉक्टर ने उसे श्यामली से मिलने के लिए बुलाया.....
अपनी बहन को इस हाल मे देख वो फिर से रोयी......एक अबोध बच्ची जैसी.... नर्स उसे बाहर भेजने लगी तो श्यामली ने उसे रोक लिया.....
इतना रोएगी विशू तो लोग समझेंगे मैं मर गयी....” 
सिर उठा कर उसने श्यामली को देखा...दोनों कि आँखों मे आंसु भरे थे.....
मैंने तो सोचा था कि मैं तुम्हारे रास्ते से हट जाऊँगी...मर जाऊँगी तो अविनाश को तुम रख लेना....
अविनाश कोई सामान तो नहीं है ना श्यामली.....वो एक इंसान है जिसके दिल मैं तुम हो....और सच कहूँ...मुझे कभी भी उससे प्यार नहीं था....मैं तो बस उसे इसलिए पाना चाहती थी क्योंकि वो मुझे मिल नहीं सकता था....कहते ही लिपट गयी वो अपनी बहन से और कब विश्वमित्रा राजपूत से छोटी सी विशू बन गयी उसे खुद भी पता नहीं चला.....
आज पहली बार उसे लगा कि उसकी मन के रीते उस कुएं पर कुछ बूंदें प्यार कि बरसी हैं....बहुत कुछ खाली हो कर भी भरा भरा सा लगने लगा....
शाम तक अविनाश भी पहुँच गया....अभी ICU मे मरीजों को देखने के वक़्त मे कुछ देरी थी....बाहर ही बैठे रहे विश्वमित्रा, अविनाश और उसके साथ आए कुछ दोस्त....निःशब्द.....
विश्वमित्रा ने नज़र उठा कर अविनाश को देखा....पागल सा....बदहवास...आँखों से अविरत बहते आँसू....क्या यही सच्चा प्यार है....क्या इसी एक क्षण के लिए लोग अपना पूरा जीवन समर्पित कर देते हैं.....श्यामली के भाग्य से ईर्षा हुई उसे....अब अविनाश ने उसकी तरफ देखा......एक फीकी सी हंसी फेंकी जिसके पीछे पीछे अनगिनत आंसुओं ने अपना रास्ता तलाश लिया..... डॉक्टर ने अब अविनाश को अंदर बुलाया....बिलकुल पागलों कि तरह भागा वो भीतर....अपने प्यार को अपनी बाहों मे भरने के लिए...कभी ना जुदा होने के लिए.....
विश्वमित्रा बाहर ही बैठी रही...घंटों तक....अपनी जगह से हिली भी नहीं.....
दो दिन बाद श्यामली को प्राइवेट वार्ड मे शिफ्ट कर दिया गया....दो दिनो तक विश्वमित्रा और अविनाश की कोई बात नहीं हुई.....दोनों श्यामली की सेवा करते रहे बस.....
पिछले चार दिनो से विश्वमित्रा भी अस्पताल मे ही रही...उसके पति उसके लिया सामान लाते ले जाते रहते....
पांचवे दिन अविनाश ने चुप्पी तोड़ी....
विशू.....आज बरसों बाद उसे इस नाम से पुकारा था उसने...
झट से पलटी वो....
देखो विशू मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है...हालांकि ये जो कुछ भी हुआ, नहीं होना चाहिए था....फिर भी तुम और श्यामली तो मेरे बेस्ट फ़्रेंड्स हो.....और अब तो हम रिश्तेदार भी बनने वाले हैं.....इन सब पुरानी बातों को भूल कर हम एक नयी शुरुआत कर सकते हैं......
विश्वमित्रा ने एक बार भी अविनाश की ओर नहीं देखा.....सिर झुका कर ही बोली....
तुम्हें ये जानकर आश्चर्य होगा अविनाश कि मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ.....तुमसे क्या मैं तो किसी से भी प्यार नहीं कर सकी.....हमेशा प्यार पाने के लिए भागती रही लेकिन ये कभी समझ नहीं पायी कि प्यार आखिर है क्या.....उस दिन ICU के बाहर तुम्हें देख कर ये एहसास हुआ कि प्यार कि तड़प उसे पाने से कहीं बढ़कर है....आज सुबह जब तुमने श्यामली के माथे पर प्यार किया तो लगा शायद सच्चा प्यार सारे ब्रह्मांड को अपने आप मे समेट लेता है....मैं तुमसे तुम्हारा प्यार नहीं छीन सकती....और श्यामली....वो तो मेरे लिए सब कुछ है...मैं खुश रहूँ इसलिए जान देने चली थी...पागल....फिर आंसुओं का बांध टूट गया.....
दस मिनट बाद वो उठी और बाहर जाने लगी.....
विशू....अविनाश ने फिर पुकारा.... हम दोनों की नज़रों मे तुम्हारा कद आज बहुत बढ़ गया है....
बिना कुछ कहे अपने आंसुओं से विदा लेकर एक मुस्कान के साथ वो सड़क तक आई.....देखा अविनाश का एक दोस्त जो उसके साथ आया था, अपनी बाइक स्टार्ट कर रहा था....
झट से आँसू पोंछ, बालों को खोल कर जूड़े से आज़ाद किया...साड़ी का पल्लू कुछ नीचे गिराया....और उसके पास जा कर उसके हाथों को पकड़ कर उससे घर तक छोडने का एक शर्मिला सा आग्रह किया.....अब वो बाइक पर बिलकुल सट कर उसके साथ बैठी थी...और अपने हाथो को उसकी कमर मे डाल दिया......

कुछ देर पहले बढ़ा हुआ कद उसे शायद कुछ रास नहीं आया........

विश्वमित्रा (भाग २)


कुछ महीनो बाद अचानक ही विश्वमित्रा के लिए एक करोड़पति होटल मालिक का रिश्ता आया.....वह एक 40 साल का तलाक़शुदा व्यवसायी था जिसकी लगभग 35 करोड़ की संपत्ति थी...उसने किसी विवाह मे विश्वमित्रा को चहकते, इठलाते हुए देखा था और तब से उसका दीवाना बन गया था.....
प्यार तो फिलहाल विश्वमित्रा के नसीब मे था नहीं...उसने सोचा इस खाई को वो पैसे से ही ढाक देगी.....
लेकिन हर ताले के लिए चाभी तो एक नहीं होती.....प्यार के ताले मे पैसे की चाभी कभी समा नहीं पायी.....पैसा वह रीतापन कभी पाट नहीं पाया जो प्यार की तलाश मे उसके अस्तित्व मे फैल गया था....
उस बात को 4 साल बीत चुके हैं...एक विवाहिता होने के बावजूद भी...इतने समझदार और इतना प्यार करने वाले पति के होने के बावजूद भी...विश्वमित्रा का आज भी बहुत से लोगों से अफेयर है....अविनाश भी उसे उन लोगों मे से एक लगता था....वो भी इससी नाते इससे मिल लेता था की वो पुराने दोस्त हैं....लेकिन विश्वमित्रा के लिए तो अविनाश अब एक ट्रॉफी था जिसे उसे हर हाल मे जीतना था....
चार पाँच महीने पहले तक तो सब ठीक था....
विश्वमित्रा, अविनाश और श्यामली बहुत अच्छे दोस्त थे....अविनाश श्यामली से एकतरफा प्यार करता था और विश्वमित्रा उन दोनों को दूर रखने का प्रयास करती थी....फिर भी वो अपने जीवन मे खुश थी....और लोगों के साथ.....हर किसी के साथ....
स्थिति विकट तब हुई जब अभी एक सप्ताह पहले अविनाश ने श्यामली को शादी के लिए प्रपोज़ किया.....और श्यामली ने भी खुशी खुशी स्वीकार कर लिया....
सब से पहले ये खुशखबरी विश्वमित्रा को ही मिली थी... उस पर तो मानो वज्रपात ही हो गया था.....
उसकी सीधी साड़ी, साधारण चाल ढाल वाली और प्यार के नाम पर मुंह बनाने वाली उससे 5 मिनट बड़ी बहन आज अपनी खुशी से एक ऐसे आदमी से शादी करने जा रही थी जो उससे इतना प्यार करता था....
और वो, विश्वमित्रा, इतनी खूबसूरत गुणवान, प्रसिद्ध और प्यार की इच्छा रखने वाली अपने पति और अंगिनित पुरुषों के होते हुए भी संतुष्ट नही है....
उसे अविनाश पर बहुत गुस्सा आ रहा था... वो क्यों उसका रूप देख नही पाता.... क्यों वो श्यामली के थके, मुरझाए से चेहरे पर कविताएं लिखता है....क्यों वो श्यामली से इतना प्यार करता है...क्यों कोई उससे इतना प्यार नही करता.....
कुछ विचार कर उठी वो...और तेज़ रफ्तार मे गाड़ी चलाते हुए श्यामली के घर पहुंची....गाड़ी को पार्क कर जब आईने मे अपना चेहरा देखा तो लगा के अभी गुस्से से यह फट जाएगा.... ईर्षा, नफरत, दुख, अपमान, तिरस्कार...ना जाने क्या क्या भाव उसे मिश्रित किन्तु साफ दिखाई पड़ रहे थे....
दनदनाती हुई वो श्यामली कमरे मे घुसी थी....उसे देखते ही श्यामली खुशी से झूम उठी थी...उसका रोष जाने बगैर उसके गले लग गयी थी....विश्वमित्रा को अपने अंदर एक अजीब सी आग महसूस हुई जो श्यामली के बदन से निकाल कर उसके हृदय को जला रही थी....
उसने एक झटके से अपनी बहन को पीछे धकेला....श्यामली चौंक पड़ी.....
तुम ठीक तो हो न विशू???” बहुत आत्मीयता से बोली श्यामली....
ठीक हूँ??? ठीक हूँ??? ठीक कैसे हो सकती हूँ मैं.... मेरा मज़ाक उड़ा कर...मेरी इन्सल्ट कर के पूछ रही हो की मैं ठीक हूँ???” चिंगारी की तरह भड़क उठी वो...
ऐसा क्या हुआ है??? और मैंने तुम्हारी कौन सी इन्सल्ट कर दी???
ओह प्लीज...अब ये भोलेपन का नाटक तो तुम मत करो... तुम जानती थी की मैं अविनाश से प्यार करती हूँ.....
क्या???? लेकिन हम तीनों तो बेस्ट फ़्रेंड्स थे.....और विशू...तुम तो शादीशुदा....
तो क्या शादीशुदा होने का मतलब है की मैं किसी से प्यार नहीं कर सकती??? मुझे अविनाश चाहिए....किसी भी कीमत पर....” हठी बच्चे जैसी तड़प उठी थी वो....
बचपन से यही तो करती आयी हो न तुम.....जो चाहिए वो किसी भी कीमत पर हासिल करनी ही है न तुम्हें???
अगर बचपन से अब तक इतनी महान बनकर मेरे लिए बलिदान करती आई हो तो एक उपकार और कर दो न....मुझे अविनाश दे दो....तुम उससे दूर चली जाओ....स्वयं की अपेकषा के ही विरुद्ध कुछ गिड्गिड़ाई विश्वमित्रा....
श्यामली सन्न खड़ी ही रह गयी.... लेकिन विशू... हम दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं....अगर मान लो अविनाश तुमसे शादी कर भी लेता है तो क्या तुम खुश रह पाओगी ये जानते हुए कि वो मुझसे प्यार करता है....
अविनाश के बिना भी तो मैं मर जाऊँगी...
लेकिन जीजाजी????.....
उनसे मैं तलाक ले लूँगी....
अच्छा....और......उसके स्वर मे बहकर अचानक वापस आई श्यामली. पागल हो ज्ञी हो तुम विशू....मज़ाक लगता है न तुम्हें ये सब....प्यार, शादी, तलाक....सब तो खिलवाड़ है न.....जो चाहा उसे छीन लिया फिर मन ऊब गया तो छोड़ दिया....
मर्म पर चोट होते ही फुफकार उठी वह नागिन.....
फिर तो ठीक है.....मैं तो बहन होने के नाते तुमको समझाने आई थी....अब ये खेल खतरनाक हो जाएगा.....तुम सारी कोशिशें कर लो अपने अविनाश को अपना बनाए रखने की....
पलट कर तेज़ कदमो से लौटी विश्वमित्रा राजपूत.....
श्यामली ने दौड़ कर उसका हाथ थम उसे रोकना चाहा....श्यामली के हाथों के स्पर्श से उसे ऐसा लगा मानो वो अभी पिघल जाएगी....इतना मर्म था उस छुअन मे की उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया....यह कैसा स्पर्श था की उसे लगा वह अभी बेहोश हो जाएगी.... उसका सारा जीवन उसकी आँखों के सामने से कई बार घूम गया.... इतनी आत्मीयता....इतना प्यार....इतनी करुणा...इतना रुदन..... जब यह स्पर्श उसके लक्ष्य के लिए असहनीय हो गया तो अपनी बहन का हाथ झटक कर अपनी गाड़ी की और भागी वो...
श्यामली अब भी स्तब्ध खड़ी अपनी कश्मकश से जूझ रही थी.... उसने चाहा कि अभी अविनाश को फोन कर के उसे सब कुछ बता दे और अपना मन हल्का कर ले.....लेकिन अविनाश तो किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले मे मुंबई गया था....इस वक़्त उसे फोन करना ठीक नहीं था...
हमारी दुविधाएँ भी हमारे साथ अजीब खेल खेलती हैं....जब कोई हमारा बिलकुल अपना हमे कोई गहरी चोट देता है ना, तो हमारे विचार बहुत जल्दी जल्दी अपनी दिशा बदलते हैं....पहले कुछ क्षण तो मन मे आता है की सामने जो हमारा अपना है ना उसे भी कोई गहरा घाव दें जिससे हमारा दर्द कुछ कम हो सके....फिर हमारी मानवता जागने लगती है और क्षमा भाव जगते है....फिर से सोच करवटें बदल कर अपने हक़ की मांगें करने लगती है....और ये सब विचार साथ मिलकर एक सुर मे हमारी दुविधाओं को बढ़ा देते हैं....
हजारों विचार चल रहे थे इस समय श्यामली के मन मे.....जीवन मे पहली बार किसी से इतना प्यार किया था उसने.... मम्मी पापा को तो दोनों बहने पहले ही खो चुकी थीं....अविनाश के आने से उसे अपना जीवन और परिवार पूरा लाग्ने लगा था....
और विशू...उसे तो वो सबसे ज़्यादा प्यार करती थी.... एक वही तो दोस्त थी उसकी इस पूरी दुनिया मे.....उसके प्यार के किस्से सुन सुन कर ही तो श्यामली भी मन ही मन अपने लिए कुछ सपने बुनती थी.... आज उसी विशू ने उसके सपनों के छोटे से घरोंदे को बसने से पहले ही उजाड़ दिया....
शायद उसे खुद ही अविनाश को विशू से शादी करने को कहना चाहिए.....उन दोनों से तो वो सबसे ज़्यादा प्यार करती है....
लेकिन वो ही क्यूँ हमेशा त्याग करे.... बचपन से लेकर आज तक उसे जो पसंद आया विशू ने पहले ले लिया....छोटी सी पेंसिल से ले कर उसकी प्यारी स्कूती तक...और फिर ये तो उसके पूरे भविष्य का सवाल था......ऐसा थोड़ी ना होता है की आज तक जो उससे इतना प्यार करता है कल उसके कहने पर उसकी बहन से शादी कर ले...वो भी क्यों....क्योंकि उसकी बहन की ऐसी ज़िद है....
लेकिन इतना सब प कर भी तो विशू अकेली ही है....क्या अपनी बहन के लिए वो इतना भी नहीं कर सकती.....
और अविनाश....अविनाश भी इस वक़्त इतनी दूर है....वो क्या करे...कहाँ जाये...किससे सलाह मांगे.....

इतनी तेज़ स्पीड मे कभी कार नही चलायी थी आज से पहले विश्वमित्रा ने....ना जाने वो किससे इतना दूर भागना चाह रही थी...जाने कहाँ जाने की उसे इतनी जल्दी थी....उस एक क्षण मे ऐसा क्या हुआ था उसके भीतर की उसे ना तो ट्रेफिक का कोई होश था ना ही इस बात की कोई सुध कि अपने घर से पाँच किलोमीटर आगे निकल आई थी वो..... बस चली जा रही थी...बेसुध....

 (जारी.....)

Saturday, August 23, 2014

विश्वमित्रा (भाग-१)




ट्रीन ट्रीन....वेक अप...अप...अप...अलार्म ने अपने पूरे जोश के साथ उसकी तंद्रा तोड़ी...हड्बड़ा कर उठी वह....हतप्रद दृष्टि चारों ओर डाली....शायद वह कल देर रात तक स्टडी मे ही बैठी थी.....शायद थक कर यहीं सो गयी थी...शायद.... पर उसे यह सबकुछ ठीक से याद क्यूँ नहीं आ रहा है......पास पड़े खाली ग्लास को उठा कर सूंघा.....पानी???? बस सादा पानी????
मतलब नशा भी नहीं था उसे कोई.........फिर यह क्या था जो उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था???? इतनी बेचैनी का कोई कारण भी तो होना चाहिए न.....खैर दो ग्लास ठंडा पानी हलक से नीचे उतारा.......इन सारी हलचलों को एक झटके से फेंकवह उठी.... अपने बालों को हाथों से हल्के से संवाराएक जूड़े मे उन्हे ढीला सा लपेट वह चल दी अपनी दिनचर्या को फिर से कसने के लिए....विश्वमित्रा राजपूतनाम के हिसाब से वह कुछ कमसिन ही थी....खूबसूरत थी...व्यवहारी थीएक अच्छी पत्नी और कार्यकुशल इंजीनियर थी वह.....कुल मिला कर जीवन के हर क्षेत्र मे वह एक सफल महिला थी.....लेकिन आज उसके कारण उसकी अपनी बहन अस्पताल मे ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही थी...लेकिन विश्वमित्रा राजपूत.....जो सारी दुनिया की हितैषी थी...उसे कोई भी परवाह नहीं थी....28 की उम्र भी एक विकट समस्या है...30 तेज़ी से पास आ रहा है और 20 का साथ छूटे नहीं छूट  रहा है....सफलता आते आते अपने साथ कुछ झुर्रियां भी ला रही है.... उम्र छुपाने वाली क्रीम और बालों की सफेदी ढकने वाले डाई भी अभी कुछ सकुचा और शरमा कर ही दराज से निकलते हैं....इस उम्र तक आते आते जीवन के कुछ उतार चढ़ावोंहमारे चुने हुए विकल्पों और हमारे द्वारा लिए गए निर्णयों की परछाई हमारे चेहरों पर थोड़ी गहराने सी लगती है....फ्रेश हो कर वह फिर स्टडी मे आई .....समान वहीं फैला छोड़ कर जल्दी जल्दी न जाने क्या समेटने की कोशिश कर रही थी वो....वो जानना चाहती थी की वो खुद क्या सोच रही है....क्या उसे श्यामली की चिंता हो रही है???....क्या वो अपनी बहन से एक बार...बस एक बार मिलना चाहती है????....क्या आज उससे 5 मिनट बड़ी उसकी बहन उसकी वजह से इस हाल मे है???....फिर भी कहीं न कहीं उसे यह सब अच्छा क्यों लग रहा है???? पर कल शाम.....जब वो अपने होश ही खो बैठी थी.... और श्यामली....उसके साथ बीता वह ममतास्नेहअविश्वास से भरा आखिरी क्षण...अब उसके चेहरे पर एक गंभीर मुस्कान तैर गयी.....फोन उठा कर किसी का नंबर डायल करने लगी.....

विश्वमित्रा के स्वभाव मे एक विचित्र सी बात थी....वो किसी को कभी भी अपने से अधिक प्रशंसा पाते हुए नहीं देख पाती थी.... एक अजीब सी मौकापरस्ती थी उसमे कि जिन लड़कियों की वो सबसे अच्छी दोस्त थीकिसी लड़के का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपनी उन्ही दोस्तों की आलोचना करने मे ज़रा भी नहीं हिचकिचाती थी वो...लड़कों के बीच वो फ़ेमस भी बहुत थी...उसकी चालाकी भरी अदाओं मे भी वो बला कि सौम्यता थी हर कोई उसकी इस कशिश का दीवाना हो ही जाता था.....उसकी जुड़वा बहन श्यामली जो कि इससे बस 5 मिनट बड़ी थीइन अदाओं से कोसों दूर थी...श्यामली भी स्मार्ट थीआकर्षक थी लेकिन उसका रहन सहन साधारण था और बातों मे इतनी कुशल भी नहीं थी वो.... कुल मिला कर बस शक्ल सूरत और बनावट के अलावा दोनों बहनों मे कोई भी समानता नहीं थी.....लेकिन दोनों मे प्यार नहीं था ये कहना भी गलत होगा.....अपने स्कूल और कॉलेज के दौरान विश्वमित्रा का करीब 10-15 लड़कों से अफेयर रहा होगा....लेकिन उसे इस बात का कोई अफसोस या कोई ग्लानि नहीं थी....उसका फंडा बिलकुल साफ था.... जहां भी प्यार मिले लूट लो...लेकिन फिर भी न जाने क्यूँ वो हमेशा सच्चे प्यार को तरसती रही....विश्वमित्रा ने प्यार को हमेशा एक प्रतियोगिता समझा.... जो लड़का उसको पसंद आया वो अगर एक सप्ताह के भीतर इसका दीवाना नहीं बना तो उसे ये अपनी हार लगती.... अगर लड़का भी उसके प्रति आकर्षित हो गया तो उसका सारा प्यार लूट कर उसे तड़पता छोड़ वो आगे बढ़ जाती अपने अगले प्यार कि तलाश मे.....
फोन का नंबर डायल कर उसने अपने गले को कुछ खँखारा....
उधर से फोन के उठते ही एक आदमी कि कुछ गंभीर सी आवाज़ आई....हैलो.....”“हैलो...क्या मैं अविनाश से बात कर सकती हूँ????....” बड़ी मादकता से पूछा उसने....
हाँ मैं अविनाश बोल रहा हूँ...आप कौन???...” रुचि दिखाते हुए अविनाश ने पूछा....
लीजिये...अब ये दिन आ गए हैं कि आप हमारी आवाज़ भी नहीं पहचानेंगे....ज़रा और इठला गयी वो....
आई एम सौरी....लेकिन मैं सच मे आपको पहचान नहीं पा रहा हूँ...प्लीज अपना नाम बता दीजिये...मुस्कुरा दिया अब अविनाश भी...
हम तो आपकी इसी अदा के दीवाने बने बैठे हैं और तो कोई कदर ही नहीं है हमारी...खुमारी आवाज़ मे भर कर अलसा गयी वो....
आप??? अच्छा....विश्वमित्रा जी....अब कुछ सकपका गया अविनाश
मैंने तुमको कितनी बार समझाया है की मुझे ‘जी’ मत कहा करो....तुम तो मुझे पराया ही कर देते हो अवि....
और मैंने तुम्हें कितनी बार समझाया है की मुझसे इस बेशर्मी से बात मत किया करो....और अब तो मैं तुम्हारी बहन का होने वाला पति हूँ...फॉर गॉड सेक...विश्वमित्रा...चीख पड़ा अब तक संयमित अविनाश....
लेकिन अब तो मैं तुमसे प्यार करने लगी हूँ...नहीं देख सकती तुम्हें किसी और का होते हुए...और फिर वो कोई और कोई भी हो...चाहे मेरी अपनी बहन ही....बरस पड़ी वो भरे हुए मेघ की तरह...
बात को समझो विश्वमित्रा... तुम एक शादीशुदा औरत हो और मेरी अच्छी दोस्त भी...अब कुछ शांत हुआ अविनाश भी... मैं तुमसे शादी तो नहीं कर सकता लेकिन हाँ तुम्हारी बाकी जरूरतें पूरी ज़रूर कर सकता हूँ....” हँसते हुए चुटकी ली अब अविनाश ने....
बिना मुझे अपना नाम दिये मेरे बदन पर अपनी फतेह की पताका लहराना चाहते हो??? मुझे तो मंजूर है...सपाट स्वर मे विश्वमित्रा ने अपना निर्णय सुनाया....
अररे...मैं तो बस तुम्हें छेड़ रहा था...वैसे मुझे कुछ ज़रूरी काम है...मैं बाद मे बात करता हूँ...उसे लगभग टाल दिया अविनाश ने....

अविनाश का उनकी ज़िंदगियों मे आगमन थी तो एक बेहद साधारण घटना लेकिन इस घटना ने उनका जीवन अस्त व्यस्त कर दिया था.... उस वक्त विश्वमित्रा एम कॉम और श्यामली एम बी ए फ़ाइनल इयर मे थे.....अविनाश प्राकृतिक दृश्यों की फोटोग्राफी करता था और उसी से अपना जीवन यापन करता था.... जब वो उदयपुर आया तो उसे रहने के लिए एक जगह चाहिए थी.... कुछ दिनों की मशक्कत के बाद वो विश्वमित्रा और श्यामली के घर किराए पर रहने आया...लगभग हमउम्र होने के कारण उन तीनों की अच्छी जमने लगी थी...साथ साथ घूमतेमूवी जातेछत पर बैठ घंटो बातें करतेलड़ते और एक दूसरे को जी भर कर चिढ़ाते.....अविनाश श्यामली की और थोड़ा सा आकर्षित होने लगा था....उसकी बेपरवाही और अनजानी चहक उसे दीवाना बनाने लगी थीं...ये बात विश्वमित्रा को समझ मे आ रही थी...उसे अविनाश कुछ खास पसंद नही था लेकिन अपनी बहन को मिलते आकर्षण ने उसे पागल कर दिया...
उसे अब अविनाश किसी भी हाल मे चाहिए था...अपने लिए नहीं...बस अपनी बहन को नीचा दिखाने के लिए.....   (जारी.....)

Saturday, August 9, 2014

क़ब्रें बात किया करती हैं


क़ब्रें बात किया करती हैं,
दबी, सनी, गीली मिट्टी के 
सूखने से पहले ,
और दुआ पढ़कर लौट जाने वाले 
आखिरी शख़्स के जाने के बाद 
कभी सहमी, कभी दबी आवाज़ में ,
कभी चीख़ते हुए यूँ ही कई दफ़ा ,
कब्रें बात किया करती हैं 

Thursday, July 10, 2014

एक कहानी...

 
एक कहानी,
फटी पुरानी
न कोई राजा,
न कोई रानी,
एक आईना,
वो चार आँखें,
एक साँस,
बस मैं और तुम....
एक से मौसम,
एक से कपड़े,
एक सी कविता,
एक से मिसरे,
एक सी बातें,
उन बातों के,
पाक मे घुलमिल,
एक आस,
बस मैं और तुम….
एक दिवाली,
और एक होली,
दूर गाँव,
एक पास सड़क,
एक पुलिया
फिर एक पगडंडी,
वहीं किनारे,
एक नहर पर,
दो मुस्काने,
एक विश्वास,
बस मैं और तुम....
तिरछी भौं,
मूछों पर तान,
सौ तलवारें,
दो सौ प्राण,
एक ग्वालन,
एक कुम्हार,
एक फैसला,
दो जीवन या 
दो सौ आन,
वहीं नदी के,
दूर छोर पर,
कोस दूर पर
डाल से लटके 
                           पास पास,
                        बस मैं और 
                             तुम...........

Monday, June 30, 2014

एक और कविता फिर तुमपर....

एक और कविता फिर तुमपर....
तुम्हारी दोहरी भौंहों पर,
तुम्हारी गहरी आँखों पर,
तुम्हारी शरारती मगर सहमी मुस्कान पर,
तुम्हारे फ़र्जी इतराने पर....
मगर इन सब से बढ़कर कहीं,
उन टेढ़े  मेढ़े से हजारों लाखों लम्हों पर,
जो हमने साथ गुज़ारे थे....
कुछ तो उतर गए मेरे भीतर, परत दर परत,
और कुछ इन पन्नों की छन्नी से छनकर,
बिखर गए कविता बनकर....
और हर बार की तरह ही
सारी दुनिया पढ़ेगी ये कविता मेरी,
एक बस तुमको छोड़कर...
क्योंकि जिसके लिए लिखी गयी कविता,
अगर उसे ही पढ़ा दी
तो बात कुछ ऐसी होगी मानो,
नमक के डब्बे मे चीनी का लेबल चिपका कर,
उसमे चीनी ही भर दी गयी हो...
न कोई अकस्मात से हादसे,
न ही चाय मे दो चम्मच भर डालने के बाद होती धुक धुक,
न कोई रोमांच, न ही खारे हुए से चेहरे
सब कुछ बिलकुल वैसा ही जैसा मालूम पड़े, दिखाई पड़े....
मगर पेट्रोल के खाली डब्बे मे भरे सादे पानी जैसे तुम,
इसलिए....
एक और कविता फिर तुमपर......

photo from google

Sunday, June 15, 2014

जिल्द


किताबों की जिल्द बदल दो
कि बड़ी ज़ोरों का तूफान आने वाला है...
जिल्द कमज़ोर रही तो उड़ जाएंगे ये पन्ने
फिर उनके सब शब्दों कि नुमाइश होगी
उन शब्दों के अर्थों को हर ओर उछला जाएगा
एक दूसरे पर नाहक ही चपोड़ा जाएगा
बेवजह दूसरों के मुंह मे ठूसा जाएगा
भावनाओं की सब और अर्थियाँ उठेंगी
और रचनाकार इस पागलपन के बीचों बीच
नंगा किया जाएगा...
और अगर नंगा हो गया रचनाकार तो
गिर जाएगा नकाब हर उस फरेब का जिसे सच के ठेकेदारों ने
सदियों से सहेजा है
पर इतना वीभत्स होगा उस सच का बेनकाब चेहरा
कि चीख पड़ेगी सारी सभ्यताएँ एक साथ
और ये भयंकर चित्कार बनेगी डंका एक नए महसंग्राम का
तो इससे बेहतर है कि ढका ही रहे सच का चेहरा
और कभी न नंगा हो कोई अनकहा इतिहास.....
ताकि कभी कुछ और न बदले किसी
भूत, भविष्य और वर्तमान मे,

किताबों कि जिल्द अब बदल दो......