Monday, June 30, 2014

एक और कविता फिर तुमपर....

एक और कविता फिर तुमपर....
तुम्हारी दोहरी भौंहों पर,
तुम्हारी गहरी आँखों पर,
तुम्हारी शरारती मगर सहमी मुस्कान पर,
तुम्हारे फ़र्जी इतराने पर....
मगर इन सब से बढ़कर कहीं,
उन टेढ़े  मेढ़े से हजारों लाखों लम्हों पर,
जो हमने साथ गुज़ारे थे....
कुछ तो उतर गए मेरे भीतर, परत दर परत,
और कुछ इन पन्नों की छन्नी से छनकर,
बिखर गए कविता बनकर....
और हर बार की तरह ही
सारी दुनिया पढ़ेगी ये कविता मेरी,
एक बस तुमको छोड़कर...
क्योंकि जिसके लिए लिखी गयी कविता,
अगर उसे ही पढ़ा दी
तो बात कुछ ऐसी होगी मानो,
नमक के डब्बे मे चीनी का लेबल चिपका कर,
उसमे चीनी ही भर दी गयी हो...
न कोई अकस्मात से हादसे,
न ही चाय मे दो चम्मच भर डालने के बाद होती धुक धुक,
न कोई रोमांच, न ही खारे हुए से चेहरे
सब कुछ बिलकुल वैसा ही जैसा मालूम पड़े, दिखाई पड़े....
मगर पेट्रोल के खाली डब्बे मे भरे सादे पानी जैसे तुम,
इसलिए....
एक और कविता फिर तुमपर......

photo from google

Sunday, June 15, 2014

जिल्द


किताबों की जिल्द बदल दो
कि बड़ी ज़ोरों का तूफान आने वाला है...
जिल्द कमज़ोर रही तो उड़ जाएंगे ये पन्ने
फिर उनके सब शब्दों कि नुमाइश होगी
उन शब्दों के अर्थों को हर ओर उछला जाएगा
एक दूसरे पर नाहक ही चपोड़ा जाएगा
बेवजह दूसरों के मुंह मे ठूसा जाएगा
भावनाओं की सब और अर्थियाँ उठेंगी
और रचनाकार इस पागलपन के बीचों बीच
नंगा किया जाएगा...
और अगर नंगा हो गया रचनाकार तो
गिर जाएगा नकाब हर उस फरेब का जिसे सच के ठेकेदारों ने
सदियों से सहेजा है
पर इतना वीभत्स होगा उस सच का बेनकाब चेहरा
कि चीख पड़ेगी सारी सभ्यताएँ एक साथ
और ये भयंकर चित्कार बनेगी डंका एक नए महसंग्राम का
तो इससे बेहतर है कि ढका ही रहे सच का चेहरा
और कभी न नंगा हो कोई अनकहा इतिहास.....
ताकि कभी कुछ और न बदले किसी
भूत, भविष्य और वर्तमान मे,

किताबों कि जिल्द अब बदल दो......