Friday, November 28, 2014

अगरबत्ती

अब तुम खुद बताओ कैसे जलाऊँ अगरबत्ती। घर से निकलते वक़्त मम्मी ने पचास हज़ार बार कहा था, हर रोज़ शाम को भगवान के सामने दो अगरबत्तियाँ जला दिया करना। उस वक़्त ना ध्यान दिया ना ही सोचा था कि दो अगरबत्तियाँ जलाना भी इतना मुश्किल होगा। नास्तिक थोड़े ही हूँ मैं.... बहुत विश्वास है भगवान मे मेरा लेकिन भगवान को एक कमोडिटी बना कर एक कोने मे सजा कर अपने विश्वास को ओब्जेक्टिफ़ाई मैं नही कर सकती।
शामे तो इस नए घर मे कभी बीती ही नही... ना ही बिताने की कभी कोशिश की गयी। हमेशा से शामे मेरे लिए बहुत मुश्किल रही हैं। भागती रही हूँ शामों से। कोशिश करती रही हूँ कि सामना ही ना करना पड़े शामों का इसलिए कभी डोमिनोज़, कभी शॉपिंग, कभी बेमतलब भीड़ मे घूमना, कभी बेवजह दोस्तों को पार्टी के बहाने अपने घर बुला लेना।
फिर भी जब कभी गाहे बगाहे मन बना कर, “एक अच्छी लड़की” की तरह कोशिश भी की अगरबत्ती सुलगाने की तो उस धुएँ से डिट्टो वही महक आई जो तुम्हारी अंगुलियों से आती थी सिगरेट बुझाने के बाद....

अब तुम खुद ही बताओ कैसे जलाऊँ मैं अगरबत्ती.....

दोहराव

कल शाम फिर देखा तुमको मैंने, वहीं, गुप्ता चाय स्टॉल के पास... तुम्हारा पुराना अड्डा... आजकल अक्सर दिखने लगे हो यहाँ फिर से। शायद कुछ दिनो से तुम भी लखनऊ मे हो।
तुमको देखते ही क्या लगा, क्या याद आया, पता नहीं। बस ऐसा लगा जैसे अपना होकर पराया हो चुका ये शहर 5-10 मिनटों के लिए फिर से अपना हो गया। तुम्हारे दिखते ही पिछले दो दिनो से उस वेज कबाब रोल वाले के ठेले की आड़ मे छुप रही हूँ। कितनी सारी बातें दिमाग मे एक के बाद एक स्लाइड की तरह भाग रहीं हैं, फास्ट फॉरवर्ड मे। नही चाहती कि तुम देखो मुझे। क्या कहूँगी सामने पड़ने पर, और तुम भी कितने अनकम्फ़र्टेबल हो जाओगे चाय पीते पीते। फ़र्ज़ी के हाय, हैलो, कैसे हो, कैसी हो, से बेहतर है कि जो जैसा चल रहा है वैसा ही चले। और सच बताऊँ तो फिलहाल मैं इस हाल मे नहीं हूँ कि वही सब इमोशन्स दोहरा सकूँ। थक चुकी हूँ फिलहाल इस फालतू के स्यापे से। आस पास कोई अगर प्यार व्यार की बातें भी करता है ना तो मुंह से चार कर्री वाली गलियाँ ही निकलती हैं। इमोशनली बिलकुल शून्य हो गयी हूँ।

बस इतना ही है कि चौराहे पे जो भीख मांगने वाले बच्चे हमारी जोड़ी सलामत रहने की दुआ देते थे , वो बच्चे  आजतक बिना एक भी नागा किये मुझे अकेले होने पर भी जोड़ी सलामती की दुआ दे दिया करते हैं।

Monday, November 17, 2014

तुम्हारी यादें

                                 
मन के भगोने के तलुए से चिपकी बैठी....
तुम्हारी यादें....
बहुत खुरच खुरच के निकाला,
पर मुई जली तुम्हारी यादें...
छूटी ही नहीं....
चिपकी रहीं….
भर कर पानी भगोने मे
रख दिया था कुछ साल पहले...
अब लगता है यही समय है
जली खुरचन छुड़ाने का....
अब तो ढीली पड चुकी हैं...
तुम्हारी यादें....