यूं
ही बातों बातों मे छिड़ा जब स्वाद और ज़ायकों का ज़िक्र,
और
एक के बाद एक लिए जाने लगे पकवानों के नाम
समेटे
हर महक, हर लज़ीज़ी, हर कलेवर,
आज मुझे लखनऊ बहुत याद आया....
किसी
पुरानी किताब मे दबे गुलाब जैसा नही
जो
किसी और की अमानत हो,
बंद
कर दो किताब और रखा रहे वो फ़ूल उसमे,
सालों
साल जस का तस...
मुझे
याद आया लखनऊ ऊनी कपड़ों के बक्से मे
बरसों
से बंद कपड़ों से आती नेफ्थलिन गोलियों की महक जैसा
जहां
उन छोटी सुफेद गोलियों का अब तो
कोई
वजूद भी नही है,
बाकी
है तो बस उनकी महक
हर
एक स्वेटर, हर कंबल, हर मफ़लर और दुशाला मे...
जिसे धुल लो महंगे वाले डिटर्जेंट से,
या
दिखा लो चाहे जितनी भी धूप,
बरकरार
ही रहती है वो महक,
और हमारे
साथ चलती है,
हमसे
लिपट कर, हमारा ही हिस्सा बन कर....
मुझे
याद आया लखनऊ,
जैसे
याद आते हैं नाम पुरानी फिल्मों के
और धुन
एक सुनते ही हम गुनगुना उठते हैं,
अधूरे
से कोई बोल...
जैसे
याद आती है चार आने की पतंग, पहली बार गिरना साइकिल से,
विश-अमृत, गिट्टी फोड़….
जैसे
याद आती है अपनी पहली कविता,
जिसे
खुद ही लिख कर फाड़ दिया था पांचवी क्लास मे....
जैसे
याद आता है अनायास ही अमरक का स्वाद,
चलती
हुई ट्रेन मे....
जैसे
याद आ जाता है कभी अट्ठारह का पहाड़ा एक ही सांस मे,
बिन
गुणा किए, एक अचरज भरी मुस्कान लिए...
जैसे
याद आती है, बालहंस की किसी कविता या कहानी की
एक
एक लाइन, अक्षरशः .....
जैसे
याद आते हैं नागराज, डोगा और चाचा चौधरी....
वक़्त
बेवक्त.....
अब जब
चला यादों का दिशाहीन सा ये कारवां,
मुझे
याद आए कोई लोग, याद आयीं वो जगहें, वो गलियाँ,
याद आये हर किसी से जुड़े कई बेहद ज़रूरी किस्से...
और
फिर जब याद आया मुझे वो दौर-ए-ज़िंदगी,
तो
आज मुझे लखनऊ बहुत याद आया.....
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मौलश्री कुलकर्णी