Friday, November 28, 2014

दोहराव

कल शाम फिर देखा तुमको मैंने, वहीं, गुप्ता चाय स्टॉल के पास... तुम्हारा पुराना अड्डा... आजकल अक्सर दिखने लगे हो यहाँ फिर से। शायद कुछ दिनो से तुम भी लखनऊ मे हो।
तुमको देखते ही क्या लगा, क्या याद आया, पता नहीं। बस ऐसा लगा जैसे अपना होकर पराया हो चुका ये शहर 5-10 मिनटों के लिए फिर से अपना हो गया। तुम्हारे दिखते ही पिछले दो दिनो से उस वेज कबाब रोल वाले के ठेले की आड़ मे छुप रही हूँ। कितनी सारी बातें दिमाग मे एक के बाद एक स्लाइड की तरह भाग रहीं हैं, फास्ट फॉरवर्ड मे। नही चाहती कि तुम देखो मुझे। क्या कहूँगी सामने पड़ने पर, और तुम भी कितने अनकम्फ़र्टेबल हो जाओगे चाय पीते पीते। फ़र्ज़ी के हाय, हैलो, कैसे हो, कैसी हो, से बेहतर है कि जो जैसा चल रहा है वैसा ही चले। और सच बताऊँ तो फिलहाल मैं इस हाल मे नहीं हूँ कि वही सब इमोशन्स दोहरा सकूँ। थक चुकी हूँ फिलहाल इस फालतू के स्यापे से। आस पास कोई अगर प्यार व्यार की बातें भी करता है ना तो मुंह से चार कर्री वाली गलियाँ ही निकलती हैं। इमोशनली बिलकुल शून्य हो गयी हूँ।

बस इतना ही है कि चौराहे पे जो भीख मांगने वाले बच्चे हमारी जोड़ी सलामत रहने की दुआ देते थे , वो बच्चे  आजतक बिना एक भी नागा किये मुझे अकेले होने पर भी जोड़ी सलामती की दुआ दे दिया करते हैं।