Tuesday, October 1, 2013

आकर्षण


तुम आ गए ?? जानती थी मैं,
आना ही था तुम्हें तो, आज नहीं तो कल,
तुम आज ही आ गए.....
मगर इस बार रूप बदल कर आये हो,
चेहरा, हाव-भाव, तौर-तरीके सब बदल गए हैं
इस बार तुम्हारे.....
सोचा था जान नहीं पाऊँगी मैं???
मैं तो दरवाजे के बाहर से ही पहचान गयी थी,
तुम्हारी आहट,
और कसम खा ली थी कि चाहे कोई भी खोले दरवाज़ा,
मैं नहीं जाऊँगी तुम्हारे सामने,
नहीं परोसूंगी तुम्हें पानी, चाय, नाश्ता,
मगर तुम तो तुम ही हो ना.....
खोल किवाड़ चले आए सीधे मेरे ही कमरे मे,
बिन इजाज़त,
आँखों से आँखें बांधने, बोलने, बतियाने,
अपनी नयी रणनीति समझाने,
मुझे फिर से अपने जाल मे फँसाने.....
पर ये क्या हुआ,
मैं तो आई ही नहीं इस बार तुम्हारी बातों मे,
मुझे तो एहसास ही नही हो पाया,
तुम्हारे सामिप्य का,
तुम कहते रहे मगर वो शब्द तुम्हारे,
मेरे कमरे की बासी हवा मे ही घुल गए,
मेरे मन क्या मेरे कानों तक भी नहीं पहुँचे,
तुमने आखिर सिर पीट लिया,
मैंने अपनी चोटी गूँथ ली,
तुम बैठ गए दरवाजे से सटकर, रास्ता रोके,
मैं पसर गयी एक मैगज़ीन ले कर, तखत पर,
और मुझे मेरी जीत का ना सही, तुम्हें पहली बार
अपनी हार का एहसास हो गया......