तो फिर आओ एक
वादा करते हैं,
कुछ कसमें खा
लेते हैं
और उम्मीद
करते हैं अभी इसी क्षण से,
कि जनम जनम तक
ये वादे ये कसमें,
हमे एक दूसरे
से बांधे रखेंगे, कभी न जुदा होने के लिए.....
और जब ये बंधन
ढीला पड़ने लगेगा
तुम्हारी
मजबूरियों, मेरी लपरवाहियों,
हमारी तन्हाइयों
के कारण,
हम झट से लपेट
लेंगे एक दूजे को,
अपनी बाहों की
नर्म रज़ाई मे,
कस कर,
तब तक के लिए
जब तक कि
मौसम की हरारत
उतर न आए
हमारे भी मन
मे,
जब तक कि बर्फ
सारी झड़ न जाए
कहीं किसी
गुलमोहर से,
जब तक कि उस
पुल की अच्छे से मरम्मत न हो जाए
जो तुम्हें
मुझ से जोड़ता है,
जब तक कि तुम
मैं और मैं तुम न हो जाएँ,
जब तक कि हमे
सब वादे सब कसमें याद न आ जाएँ,
क्रमवार,
हम ओढ़े ही
रखेंगे तब तक
बाहों की नर्म
रज़ाई,
फिर जब उस
रज़ाई से हमे उलझन सी होने लगे,
गर्माहट असह्य
हो जाए, हरारत ताप बन जाए,
गुलमोहर कहीं
झुलसने लग जाए,
हम उतार
फेकेंगे उस रज़ाई को
कोसों दूर, आँखों
की पहुँच से आगे,
या बंद कर
देंगे किसी सन्दूक मे,
नेप्थिलीन की
गोलियां डाल कर,
अगले मौसम तक
के लिए,
और जुट जाएंगे
फिर से
जीवन के उन्ही
सब ताने बानो मे,
अगले मौसम तक के लिए......
अगले मौसम तक के लिए......
image from google
3 comments:
सुन्दर कविता मौलश्री जी आभार |
काश ये गर्माहट असहनीय नहीं होती, हरारत न बनती।
"जब तक कि तुम मैं और मैं तुम न हो जाएँ"
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