मेरे कई चेहरे
हैं,
कुछ लिपे पुते
से, कुछ विभत्स,
और मेरा हर
चेहरा,सच मानो
उतना ही सच्चा
है....
मैं मौका देख
कर गिरगिट की तरह,
रंग नहीं
बदलती,
ढल जाती हूँ
एक नए मुखौटे मे,
हर बार,पूरी
तरह से,
अपना लेती हूँ
नया चेहरा,
उसी आत्मीयता
से.....
ओढ़ लेती हूँ
हर बार,
एक नया
अस्तित्व,
ताकि जी सकूँ
मैं वही एक जीवन,
नयी पहचान के
साथ, कई कई बार.....
मेरे मन के
भीतर एक कमरा है,
जो जितना अंदर
उतरता है
उससे कुछ कम
बाहर खुलता है,
यहाँ इंसान
नहीं रहते, यादें भी नहीं बसतीं,
यहाँ मेरे मुखौटे
रहते हैं हिफाज़त से,
ताकि झट से
पहन लूँ नया चेहरा,
कहीं भी, कभी
भी,
जिसकी जब भी
ज़रूरत हो....
कभी ऊब जाओ
अपने एकाकीपन से
तो आ जाना
देखने,
मैंने उसी
कमरे मे अपने मुखौटों की,
प्रदर्शनी
लगाई है......
1 comment:
राजीव जी एवं राजेंद्र जी… इस प्रोत्साहन तथा मेरी रचना को शामिल करने हेतु आभार...
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