Sunday, August 18, 2013

चलो कहीं चलें...

चलो कहीं चलें, बिन सोचे, बिन समझे, बस चल पड़ें,
उठो तुम, मेरे कांधे पर हाथ टेक कर,
और खींच लो मुझे अपनी बाहों का सहारा दे कर,
ये जो रेत बिखरी है हमारी बातों जैसी,
इसे भर लो तुम अपनी जींस की जेबों मे,
और मैं लपेट ले चलूँ अपने बालों मे गूँथ कर इसको,
फिर ये दिन जो अब थक गया है हमारे साथ साथ चलते,
एक अलसाई सी अंगड़ाई ले कर मुसकाए,
और इस सुनहरे अथाह पानी मे समा जाए,
फिर एक रात भी आए, और हम तुम चलते ही रहें,
अपनी चप्पलें हाथों मे उठाए,
उस पानी को छूने के लिए, जो हमारे उजाले चुरा के जा रहा है,
अपनी जींस कुछ और ऊपर मोड़ें, पैरों से पानी उड़ाएँ,
और एक चाँद खिल उठे उसी पानी से,
मेरी अंगुलियाँ बंधी ही रहें, तुम्हारी अंगुलियों के ताने बाने से,
जब मैं थक जाऊँ चलते चलते तो तुम, एकटक देखो मुझे दूर से,
आओ ना, कुछ देर यहीं बैठें, सुस्ताएँ, थम जाएँ,
फिर मैं भी कुछ न बोलूँ, तुम भी खामोश रहो,
ये रात यहीं खत्म हो जाने दो, वक़्त यहीं थम जाने दो,
यहीं बैठे तुम्हारे साथ तुमको सोचा करूँ, और ये याद भी न रहे,
कि जो ये रात बीती है तो सुबह आ ही जाएगी,
आओ चलें अब अपने अपने मुक़ामों की तरफ,
तुम मेरा हाथ छोड़ दो और मैं पलट कर भी न देखूँ,
हर दिन की तरह मैं यहीं समुंदर बन के बिखरी रहूँ
तुम जाओ आसमान मे सूरज बन के चमको,
मैं तुम्हें शीतल करती रहूँ, तुम मुझमे नयी चेतना भरते रहो,
चलो, कहीं चलें, चलते रहें, बिन सोचे, बिन समझे......






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