Monday, August 25, 2014

जून महीना


किसी जून महीने मे,
कई बरस पहले,
खूब जम के बरसा था मानसून जिस साल,
घर के बाहर जमा हो गया था कित्ता सारा पानी,
बिलकुल गंगा जी जैसा,
घुटनों तक, घुटनों से भी ऊपर,
सबको कित्ता चाव चढ़ा था ना
कागज़ की नावों की रेस लगाने का,
मुझसे लाख गुना बेहतर थी नाव तुम्हारी,
इसलिए मन ही मन दे डाली थीं मैंने,
हज़ारों बददुआ उस मुई नाव को,
फिर शुरू हुई जब रेस हमारी सब नावों की,
मैंने तुमको घूर कर देखा था गुस्से मे,
और मुस्कुरा दिये थे छुप कर तुम हल्के से,
फिर क्या हुआ था उस रेस का उस दिन, अब याद नहीं,
बस उस दिन, उस रेस मे,
तुम जीत भी सकते थे, मैं हार भी सकती थी,
पर हार गए तुम भी और हार गयी मैं भी,
फिर जीत गयी थी मैं, और जीत गए तुम भी.....

2 comments:

Unknown said...

waah..bahut badhiya

Kailash Sharma said...

बहुत भावपूर्ण और सुन्दर अभिव्यक्ति...