Thursday, August 8, 2013

तुम्हें याद है ना...

तुम्हें याद है ना,
पिछली बार जब एक तारा टूटा था,
और हमारे कुछ मांगने से पहले ही
मोतियों की प्लेट जैसे उस आसमान मे
ओझल हो गया था,
और कितना हँसे थे हम छत की मुँडेर पर बैठे,
मैंने तुम्हें गली के नुक्कड़ वाली शालू के नाम पर
कितना चिढ़ाया था....
तुम्हें याद है ना....
जब तुमने मुझे अपनी पहली कविता सुनाई थी,
आज कह रही हूँ तुमसे
मुझे एक भी शब्द समझ नहीं आया था,
मैं तो बस तुमको सुन रही थी अपनी आँखों से,
तुम्हारा प्यारा सा चेहरा,
जिस पर कविता के साथ अनगिनत भाव आ जा रहे थे,
मैं तो उन धडकनों को पढ़ रही थी,
जो मेरे मन मे सरगम बजा रही थीं,
तुम्हें याद है ना....
एक हलवाई था सड़क के उस पार,
जहां हमने मुफ्त की जलेबिया पच्चीसों बार खाई थीं,
फिर एक बार उसने बदले मे तुम्हारी साइकिल रखवा ली थी,
और तुम्हें मनाने को, तुम्हारे लाल लाल हो चुके
उस चेहरे का रंग बदलने को,
मैंने तुमको पाँच रुपये की खिलौने वाली कार दिलाई थी...
तुम्हें याद है ना?
अब तो शायद याद भी ना हो तुम्हें ये सब,
मुझे भी कहां अब वक्त याद रहता है,
बस आज जलेबियाँ खा रही हूँ, एक कविता पढ़ते पढ़ते,
अभी शालू आई थी कुछ देर पहले,
और बरसों के बाद आज फिर
एक टूटता तारा देखा है.....
                           ---मौलश्री कुलकर्णी


2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

अच्छा लिखती हैं लिखती रहें शुभकामनाऎं !

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बहुत उम्दा....बहुत बहुत बधाई...